ज्योति पर्व

 

द्वेष कलुष की कालिख पोंछोज्योतिपर्व

मंगल ध्वनि बजाओ

आँगन गलियों चौबारों संग

दिल में दीप जलाओ

मुरझाये सपनों को सींचो

कुछ अरमान जगाओ

वंचित व्यथित विकल नयनों में

आशा दीप सजाओ

अंतरतम से नेह निचोड़ो

स्नेह सुधा बरसाओ

ज्योतिर्मय हो हर पल जीवन

ज्योति का पर्व मनाओ ……

आवरण

 

ये सच है कि बचपन की यादें

सुहानी लगती हैं

पर पचपन की बातें भी तो

बहुत दीवानी लगती हैं

अगर उस समय  थी खोमचे पर सजी मिठाई

बर्फ के  गोले  या ईमली की खटाई

तो आज भी मिलती है रसमलाई

रबड़ी, इमरती, केसर वाली मलाईआवरण

कुल्फी की कुल्हड़, सूजी के गोलगप्पे

आलू की चाट के लप्पे झप्पे

मजा तो अब भी कोई कम नहीं

हाँ मन हो अगर बेफिक्र कोई गम नहीं

अगर बढ़ा न हो शुगर और न हो ब्लडप्रेशर

तो लीजिये मजे जी भर – भर कर

सुबह तो अभी भी लगती है बहुत सुहानी

जरा देखो सवेरे उठ कर

पर क्या खाक लगेगी अच्छी

जब होगा देर रात की पार्टी का हैंगओवर

ऐसा नहीं है कि शाम अब नहीं है आती

ये अलग बात है कि कभी काफी हॉउस में

तो कभी ट्रैफिक में ही बीत जाती

नजारे आज भी बहुत खूबसूरत हैं

जीवन का रंग और भी  बढ़ गया है

ये अलग बात है कि

हम हो गए हैं कृत्रिम

और आत्मा पर तथाकथित आधुनिकता का

आवरण चढ़ गया है ….

व्यथा

किसे कहोगे, कौन सुनेगा ?

माना अंतर फटा जा रहान जाने क्यों

तिल तिल कर के कटा जा रहा

घुमड़ रहा है अंदर अंदर

उमड़ रहा है ज्वार समंदर

मत बिखरो तुम, कौन चुनेगा ?

किसे कहोगे, कौन सुनेगा ?

गरल हलाहल पी जाओ तुम

चोटिल अंतर सहलाओ तुम

मौन रहो चुपचाप कहो

संबंधों का संताप सहो

मत उघड़ो तुम कौन बुनेगा ?

किसे कहोगे, कौन सुनेगा ?

युगों युगों से रीत यही

अपनी लागे, औरों की नहीं

सुन व्यथा कौन सहलायेगा ?

क्या नहीं कोई इठलायेगा  ?

कथा को तेरी कौन गुनेगा ?

किसे कहोगे, कौन सुनेगा ?

समय के साथ

समय के साथ चलते – चलते अब थकने लगा हूँ 

अथक प्रयासों के बावजूद

अक्सर कहीं खो जाता हूँ

इस भ्रम में कि जाग रहा हूँसमय के साथ

जाने कब सो जाता हूँ

संबंधों की आंच में अब पकने लगा हूँ

समय के साथ चलते – चलते अब थकने लगा हूँ

ऐसा नहीं है कि निराश हो गया हूँ

भविष्य को ले कर उदास हो गया हूँ

तपती दुपहरी में भी खूब चला हूँ

पूस की रातों में ठिठुरा हूँ, गला हूँ

चेहरों को पढ़ते – पढ़ते अब अटकने  लगा हूँ

समय के साथ चलते – चलते अब थकने लगा हूँ

स्पर्धा की तपन महसूस करता हूँ

चलन से विचलन महसूस करता हूँ

एक समय था जब जुड़ाव था, विस्तार था

रिश्ते सारे नगद थे, ना कोई उधार था

अपने आप में अब सिमटने लगा हूँ

समय के साथ चलते – चलते अब थकने लगा हूँ

ओस में भीगने का मन करता है

रेत पर चलने का मन करता है

दौड़ना चाहता हूँ खेत की मेड़ों पर

चढ़ना चाहता हूँ आम के पेड़ों पर

शहर में अपने आप से अब कटने लगा हूँ

समय के साथ चलते – चलते अब थकने लगा हूँ…..

कदाचित

 

परिवेश की पुनरावृतिकदाचित

सन्दर्भों का संचयन

स्मित निर्निमेष अशेष

विस्मृतियों का विवेचन

जिजीविषा की विवशता

निवर्तित संबंधों का निर्वहन

अदृश्य अस्मिता का आकलन

शून्य का संभरण

तन्द्रा कोई क्षिप्त

शुष्क स्नेह सिक्त

प्रस्थान की प्रतीक्षा

मोक्ष नहीं दीक्षा

पुनः पुनः प्रयास

प्राण का आभास

संवरण निस्तरण

कदाचित यही जीवन ….

दीपोत्सव

 

 

सजा धजा साकेत निहारेदीपोत्सव

कब आयेगें राम ?

अट्टहास कर रहा है रावण

कौन दिलाये त्राण ?

गहन अमावस घिर आया है

आशा दीप जलाओ

बंद करो अब रुदन अमंगल

मंगल ध्वनि बजाओ

अंतस तम से बंधमुक्त हो

प्रज्ञा दीप सजाओ

श्री समृद्धि के स्वागत को

स्व सामर्थ्य जगाओ

दीपपर्व की मंगल वेला

सब सामोद मनाओ 

 

 

 

पाणिग्रहण पर लगा ग्रहण

 

दरक रही हैं दीवारें नित

दुविधा में डूबी दुहिता

गौण हो रही गुण ग्राहकता

और संबंधों की शुचितापाणिग्रहण पर लगा ग्रहण

मंडी सजी है रिश्तों की

और कन्यादानी रहे हैं तोल

देखो कैसी ये विडम्बना

मांग रही माँ दूध का मोल

कितने दिन होगा निबाह

रखेगें सब  सम्बन्ध सहेज

बनेगे  जब व्यापार विवाह

और दावानल बने  दहेज

जागो यौवन बहुत हो चुका

अब ना माँ का  दूध लजाओ

पाणिग्रहण पर लगा ग्रहण है

आहुति दे कर  मोक्ष दिलाओ …..

गंगा

 

गंगा विचार है दर्शन है

नित पूजन है अभ्यर्थन है

है संस्कृति की संवाहक

गंगा सभ्यता का दर्पण हैganga

तेजोमय प्रवाह है ये

जीवन पद्धति निर्वाह है ये

है मोक्षदायिनी उद्धारक

ऊर्जा का एक उछाह है ये

उर्वरता का वैविध्य है ये

वैतरणी का सानिध्य है ये

है मातृशक्ति जीवन जननी

आगम निर्गम आविध्य है ये

प्राणों में मूलाधार है ये

आनंद है ये त्योहार है ये

है परिवर्तन की द्रष्टा यह

भारत भू को उपहार है ये  …….

कायाकल्प

 

विमल तरंगिनी भगीरथ नंदिनी

गंगे हुई उदास

अमृत जल है बना हलाहल

कौन बुझाये प्यासकायाकल्प

करे आचमन कैसे कोई

और लगाये डुबकी

हुई जाह्नवी विकल मलिन मुख

नहीं सुने कोई सिसकी

हुई त्रिपथगा आज विपथगा

धनजल बन गया ऋणजल

मोक्षदायिनी सुरसरि गंगा

बनती जा रही दलदल  

बहुत हो गया और नहीं अब

करें सभी संकल्प

निर्मल स्वच्छ धवल गंगा हो

पुनः हो कायाकल्प …..

वसंत एक बीत गया

 

बचपन छूटा गया घरौंदाबीत गया

लहरों में खो भीत गया

प्रत्याशा तृष्णा आकर्षण

ले कर मन का शीत गया

बहुत कमाया बहुत लुटाया

प्रीत गई मीत गया

दांव लगाया हारा सब कुछ

छोड़ दिया तो जीत गया

सम्बंधों को  मथ कर देखा

पिघल पिघल नवनीत गया

सुर सप्तक और गीत संभाला

जीवन से संगीत गया

बूंद बूंद कर जाने कैसे

अंतर्घट कब रीत गया

पतझड़ आये सावन बरसा

फिर वसंत एक बीत गया ……