अवलोकन

आकलन

समय या संदर्भों ने न्याय किया या अन्याय यह तो हमारी विचारधारा की परिपक्वता और विगत के अनुभवों

के विश्लेषण पर निर्भर करता है | प्रेम के प्रसंग में किसी की सोच इस प्रस्फुटन को पूर्णकालिक मान लेती है तो

किसी और की सोच में यह  अंशकालिक ही रह जाता है | कुछ के लिये यह अहसास सार्वभौमिक और नैसर्गिक

है तो कुछ को इसमें सिवा स्वार्थ एवं  मनोविकार के सिवा  कुछ और दृष्टिगत  नहीं  होता | जीवन  यात्रा में

अनेक व्यक्तित्वों से  साक्षात्कार  होता  है | कुछ  आपके  बिखराव  को  समेट   एक  सार्थक  स्वरुप  देने  का  

प्रयास करते हैं तो कुछ आपकी अस्मिता को खंडित करने का |

जीवन  के उत्तरार्द्ध  में विगत  का  अवलोकन  करने  के  क्रम  में  यह  निर्णय  पूर्णरूपेण  उस  व्यक्तित्व पर

निर्भर करता है कि किसने  उसकी  वैयक्तिकता  को  संपूर्णता  प्रदान की ,वह  जिसने  उसे सराहा अथवा

वह जिसने उसे आहत  किया | न्याय या  अन्याय ,धर्म  या  अधर्म ,नैतिकता  वा  अनैतिकता ,पाप  अथवा  

पुण्य ,सफलता  या असफलता ,मर्यादित अथवा अमर्यादित ,ये  सभी विषय प्रासंगिक  और  सापेक्ष  हैं |

इन्हें  सार्वभौमिकता  और  सार्वकालिकता की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता | तात्कालिक  सामाजिक  

एवं  सांस्कृतिक अवधारणाओं  के परिप्रेक्ष्य  में  अवलोकन कर के ही हम अपनी सोच को  एक  सार्थक  एवं  

रचनात्मक  ऊर्जा  से  अनुप्राणित  कर  सकते  हैं |   

शिक्षा

 

शिक्षा का व्यवसायिकरण इस स्तर पर पहुँच गया है जहाँ से नैतिक और चारित्रिक पतन के अध्याय से

साक्षात्कार विवशता प्रतीत होने लगती है | शिक्षा का  बाज़ार  सजाने  और  चलाने  वालों  की  बात तो

समझ में आती है परन्तु शिक्षकों की मौन सहभागिता का अर्थ समझने का प्रयास मन  को  विचलित

कर देता है | प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर  नामांकन की

प्रक्रिया का चक्रव्यूह तो शायद अभिमन्यु  भी न भेद पाते | पात्र

के साथ अन्याय सदैव से होता आया है | चाहे वह एकलव्य का

प्रसंग हो अथवा कर्ण का , सामाजिक मूल्यों के दवाब में जो कुछ

भी  हुआ , कम  से  कम  न्यायसंगत  तो  प्रतीत  नहीं   होता |  

‘सिस्टम’ की दुहाई देकर ‘डोनेशन’ और पैरवी  की  बैसाखी  के

सहारे शिक्षातंत्र अपने उद्देश्यों के साथ  कहाँ   तक   न्याय  कर

पायेगा ,यह तो आने वाला समय ही बता सकता है परन्तु विद्यालय और विद्यार्थी की  अवधारणा  को

शिक्षालय और शिक्षार्थी  में   निरुपित  तथा  परिवर्तित   कर   के  भारत  के  भविष्य को  जिस  प्रकार

दृष्टिहीन  बनाने  का  प्रयास जाने या  अनजाने , किया   जा   रहा   है ,यह   अत्यंत   दुर्भाग्यपूर्ण  है |

आवश्यकता  और अपेक्षा  यह है कि सरस्वती के कृपा पात्र  शिक्षकगण  अपनी  अंतरात्मा  की  आवाज़ 

को  अनसुना  न करें और कम से कम गुणी ,मेधावी तथा प्रतिभासंपन्न विद्यार्थियों के हितार्थ  समय

अवश्य निकालें |   

 

प्रेम

 

जीवन  और  मृत्यु  की  भांति प्रेम भी एक शाश्वत सत्य है | अनेक परिस्थितियों   और चरणों  में  प्रस्फुटित  होती  यह 

पवित्र   भावना  स्वतः  स्फुरित  होती  है |

                      प्रेम न बाड़ी उपजै ,प्रेम  न  हाट  बिकाय

                      राजा  प्रजा  जेहि रुचै शीश देई लय जाय

प्रेम  में  आबद्ध  व्यक्तित्व  स्वयं  को समर्पण की धारा के हवाले कर देता है ,

एक  ऐसी  परिस्थिति  का  निर्माण  होने  लगता है जहाँ अहम का विलोपन ,

चैतन्यता  को  जाग्रत  कर एक नैसर्गिक परिवेश का सृजन करने लगता है |

एक  ऐसा  परिवेश  जहाँ  अपेक्षाएं  न  तो  बाँधती   हैं और न तो बद्ध अनुभव

करती  हैं | कोई  शर्त  नहीं  कोई  विनिमय  नहीं ,होती   है  तो   केवल  एक  रागात्मक  अनुभूति  | एक  ऐसी  अनुभूति 

जो  सुन्दर  तो  है  पर  एक  अव्यक्त पीड़ा  की  जन्मदात्री  भी | प्रेम  की  पीड़ा   यदि  सत्य  है   तो  कटु  क्यों   नहीं ? 

शायद सत्य  को  सदैव  सुन्दर  कहा  गया   है ,इसीलिए  ? देह  और  नेह  का  सत्य  एक  दूसरे  से  एकदम   अलग  है |

आकर्षण का  क्षणिक  आवेश   जब  क्षण  के  प्रति  आत्म  समर्पण   को   बाध्य  कर   दे  तो   सत्य  और  तथ्य के  बीच 

का  द्वन्द अर्थहीन  प्रतीत  होने  लगता  है |जहाँ  एक  तरफ  एक  आदिम  भावना  अपने  तर्क  से  निरुत्तर करने  का 

प्रयास  करने लगती है  तो वहीं  दूसरी  ओर देवत्व  की   मर्यादा  याचक  बन  कर  सामने   आ   खड़ी  होती  है | प्रेम का 

सनातन  और शाश्वत सौन्दर्य ,सृष्टि  की  चिरंतन  धारा  में  प्रवाहित  होते  प्राणियों  को सदैव नैतिक  तथा  चारित्रिक  

उदात्ता  का  अनुभव  कराता  रहेगा  , इसमें  कोई  संदेह   नहीं ………..

परिवर्तन

 

समय के साथ साथ मनुष्य की आस्थाओं और विचारधाराओं में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया प्रतीत होती है |

बदलते  सामाजिक ,आर्थिक  और  सांस्कृतिक  परिवेश  में  व्यक्तित्व  में कुछ  नए  आयाम  जुड़ते  हैं  तो  कुछ

पृष्ठभूमि में चले जाते हैं | इस जुड़ाव की प्रक्रिया के फलस्वरूप

जिस नए व्यक्तित्व का आकार उभर कर आता  है वह समष्टि

के   प्रति   कितना   समर्पित  और  उत्तरदायी  होगा ,यह  उस

व्यक्ति  से  जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों  की फेहरिस्त पर

भी निर्भर करता है | परिस्थितिजन्य  कारणों के प्रभाव से कभी

दस्युराज  भी  संन्यास  ले  लेता  है  तो  कभी   सांसारिकता  से

विरक्त   सन्यासी   भी   कामदेवता  के   बाणों  से   बिद्ध  हो  कर  चारित्रिक   दौर्बल्य  का  ग्रास  बन  जाते  हैं |

नकारात्मकता का  नेपथ्य  में  तिरोहित  हो  जाना  निश्चित  रूप  से स्वागतेय होगा परन्तु संयम एवं सदाचार

के   मार्ग   से  विचलन   के    फलस्वरूप   पतन   सम्पूर्ण   समष्टि  के   लिए   दुर्भाग्यपूर्ण   प्रसंग   होगा |    

ग्रहण

 

नित्य और निरंतर चलायमान कालचक्र ,सृष्टि  के स्वरुप को प्रत्येक क्षण प्रभावित

करता नई चुनौतिओं  को आमंत्रित करता रहता है | एक प्रश्न सदैव ही मानव मन

को  मथता  रहा  है  कि  क्या  सुख  या  दुःख , प्रसन्नता  या  अवसाद , उन्नति या

अवनति , सफलता   या   विफलता , यश  या  अपयश , हानि  या  लाभ  , निरंतर

परिवर्तनशील  और  चलायमान  कालचक्र का परिणाम हैं या प्रारब्ध का प्रतिफल |

पूरी  सृष्टि  को  अपनी ऊर्जा से अनुप्राणित करने वाले  भास्कर भी ग्रहण से ग्रसित

होने  पर  त्याज्य  हो जाते हैं | कैसी  विडंबना है कि सूर्य के तेज से प्रकाशित चंद्रमा ही ग्रहण  का  कारण  बन जाते हैं और

ग्रहण  की  अवधि  में  दिवाकर  की अक्षय ऊर्जा पर पलने  वाले  जीव  उधर देखना तो दूर  उनकी छाया तक से बचते नज़र

आते हैं | इस प्रसंग  पर  विचार  करने  के  उपरांत  विपरीत परिस्थितिओं  में  घिरे  मनुष्य से कन्नी काटते लोगों को देख

कुछ  भी आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होता | संध्या के आगमन के साथ ही अपनी परछाई भी साथ छोड़ जाती है तथा नितांत

अकेले  होने  का  अहसास अंतर्मन पर दस्तक देने लगता है | अवसाद्पूरित और विपरीत परिस्थितिओं  में एकाकीपन ही

एकमात्र  सहचर रह जाता है | ग्रहण से मोक्ष  और सृष्टि   का   पुनः   पूर्ववत   हो  जाना  मानव  मात्र  के  लिए  ये सन्देश

है कि कितना  भी  प्रतिकूल  परिवेश  क्यों  न  हो , धैर्य  के  साथ  अपने अस्तित्व की रक्षा करते  हुए  मनुष्य  पुनः  अपने 

सामर्थ्य  को  प्रतिस्थापित  कर  सकता  है |

चिंतन

 

कालबद्ध  दिनचर्या  के  चक्रव्यूह  को  भेदने का प्रयास करता मनुष्य इस चिरंतन

और शाश्वत सत्य को  कैसे  विस्मृत  कर  देता  है  कि  सृष्टि  और संहार ,सृजन

और विनाश ,उत्थान और पतन का चक्र अनवरत घूमता रहता है | एक अगम्य ,

अदृश्य और असीम सत्ता किस सूक्ष्मता से जीवन के  अजस्त्र प्रवाह को नियंत्रित

और निर्देशित कर रही है ,यह क्षणिक अनुभूति भी स्वतः ही उसके प्रति समर्पण

की  परिस्थितिओं  का  सृजन  करने  लगती  है | अव्यक्त  और अज्ञात चेतना के

स्वरुप  का  चिंतन  और अन्वेषण शनैः शनैः मनुष्य को एक पूर्णता के परिवेश की

ओर खींचे लिए चला जाता  है  और  इस  विचार  यात्रा  में  अग्रसर  होते प्राणी  के

अंतःस्थल में परमानन्द की अनुभूतियों का प्रस्फुटन होने लगता है |

अस्मिता की तलाश

 

चाह कर भी कुछ न कर पाने की विवशता कई मायनों में आत्मघाती प्रतीत होती है | जहाँ  एक ओर परिस्थितियाँ आमंत्रित

कर  रही होती  हैं और मन उसके सम्मोहन में बंधा आत्मसमर्पण की मुद्रा में आता प्रतीत होता है ,वहीं  दूसरी ओर से बुद्धि

सचेत करती व्यव्हारिकता की दुहाई देने लगती है | हृदय में हिलोर लेती भावनाएं बौद्धिकता और सामाजिकता को चाह कर

भी  अनदेखा  नहीं  कर  पातीं   और  क्लांत  मन  तड़पता  रह जाता है |

मन  को  यह प्रश्न मथता रहता है कि आत्महनन की इस परिस्थिति का

सर्जक  किसे  माना  जाय ?  तथाकथित  मर्यादाओं  का  अनुसरण   एवं 

अनुपालन  करते  हुए  अंतर  को  बहलाने  का प्रयास संस्कृति को जीवंत

बनाये रखने का प्रयास है या दायित्व ,यह  विचारणीय  है | अपरिभाषित 

आनंद  और  सफलता  की  तृष्णा को  तृप्त  करने  के  लिए भटकता मनुष्य

जब  तक  परछाई  को  पकड़  सकने  का मंत्र समझ पाता है तब तक साँझ का आगमन हो जाता है | अतीत का आकलन

और  अनागत  का  आभास ,अंतर  को  कभी  आहत करता है तो कभी आह्लादित | अगम्य और अपरिमेय अहसासों  में 

उलझा  मनुष्य अज्ञता  के  अंधकूप  से  निकलने  को अविरत प्रयत्नशील रहे ,यह एक सार्थक सोच होगी जो अस्मिता की

तलाश को एक नूतन  आयाम देगी |

अव्यक्त नैराश्य

जीवन  में  कई अवसर ऐसे आते हैं जब अंतर्मन को एक अव्यक्त नैराश्य का परिवेश आबद्ध कर लेता है | सघन अन्वेषण

के पश्चात भी इस उदासी की पृष्ठभूमि में कोई कारण छिपा बैठा नज़र नहीं आता |आत्मचिंतन में लीन  मनुष्य स्वयं को

जीवन की अजस्त्र धारा के हवाले कर देता है |

 

 

 

 

यह तीव्र धारा कभी खींचती तो कभी ठेलती अपने संग बहाए लिये चली जाती है और मनुष्य इसे विधि का विधान मान

कर  आत्मसमर्पण  कर  देता  है | ऐसी  अवस्था  में यह विचार कि अन्य भी तो  इसी तरह प्रवाहित हुए जा रहे हैं , थोड़ा

आत्मसंतोष  का  कारण  बन  जाता  है | इस प्रकार  का  सिद्धांत या दर्शन मनुष्य को उसकी अव्याखेय्य उदासीनता से

निकाल  पाने  में  कहाँ तक सफल हो पाता  है यह एक पृथक प्रश्न है परन्तु व्यक्तित्व में आये तात्कालिक असंतुलन

को कुछ हद तक  दूर  अवश्य कर देता है | भौतिक सुविधाओं से परिपूरित और तृप्त मन अनेक अवसरों पर भ्रमित हो

जाता  है  और  एक अपरिभाषित आनंद की चाह उसे सिद्धांतों और दर्शनों के बाज़ार की ओर सम्मोहित करने लगती है |

इस  चाह  में  जिज्ञासा  कितनी और लालसा कितनी निहित रहती है यह प्रश्न भी विचारणीय है | सृष्टि के आरम्भ से

आज  तक  यह  चिंतन  अनेक  सभ्यताओं  के  उत्थान  और  पतन  का साक्षी बना रहा है और आज भी मनुष्य इसके

सामने नतमस्तक हुआ जा रहा है |         

 

 

अस्त होते संबंध

सप्तपदी की सुगंध से प्लावित सम्बन्ध ,समष्टि एवं व्यक्ति दोनों को ही जीवन दायिनी ऊर्जा से परिपूर्ण कर देते हैं | आपसी सौहाद्र एवं माधुर्य की चाशनी  में पगते पलों की अनुभूति कड़वे अहसासों के अस्तित्व को  मिटा देती है | वासंती मधुमास का उद्दाम प्रवाह जब  व्यवहारिकता  के ठोस धरातल से टकराता  है तो भौतिकवादी जेठ की तपती दुपहरी का ताप पा भावनात्मकता भाप बन कर संवेदनशून्य विस्तार में खोने लगती   है |

अंतर्संबंधों  के  समन्वयन  और  परिमार्जन  का  आयाम  धूमिल पड़ने लगता है और  उसकी   जगह  निर्देशन  और  स्वामित्व  प्रभावी होने लगता है | जब सम्बन्ध कर्तव्य एवं दायित्व को किनारे कर अधिकार और अपेक्षा की ओर केंद्रित होने लगते हैं तो शनैः शनैः विघटन का ग्रास बनने लगते हैं | निसंदेह  रूप  से  असमय  काल  कवलित  होते  सम्बन्ध एक त्रासदपूर्ण परिवेश का निर्माण करने    लगते हैं परन्तु संबद्ध पक्षकारों का स्थापित मर्यादाओं से विचलन इसे विध्वंश की कगार पर ले जाता    है | ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितिओं  में प्रभावित पक्षों से ये अपेक्षित हो जाता है कि असफल अंतर्संबंधों  की सार्वजनिक व्याख्या न की जाय और भग्नावशेषों को सहेज कर कहीं किसी गुमनाम कोने में सजा कर रखें |       

यात्रा

सर्वप्रथम उस मातृशक्ति को नमन जिन्होंने मुझे अस्तित्व प्रदान किया | मेरे अस्तित्व को सार्थक बना कर एक अस्मिता से परिचित कराने वाले पितृत्व को सादर नमन | काल और समाज के सम्मोहन में आबद्ध नित नए आयामों से अपने आप को परिचित कराता ,शैशव ,बचपन और किशोरावस्था के प्रांगण को पार करता यौवन की दहलीज पर आ खड़ा हुआ | बचपन में आत्मसात किये गए संबंधों और भावनाओं की परिभाषा एक दुविधापूर्ण परिस्थिति को जन्म देने लगी जिसने किंकर्तव्यविमूढ़ता के जटिल चक्रव्यूह की रचना का सूत्रपात कर दिया | अभिमन्यु की भांति रणक्षेत्र में उतर तो आया परन्तु आस्थाओं से आहत अंतर को सँभालने की कोशिश में हरेक बार मुंह की खानी पड़ी | विश्वास के प्रति वितृष्णा और विक्षोभ ने कभी भी किसी संबंध को प्रस्फुटित ,पल्लवित और विकसित होने का अवसर नहीं दिया | जहाँ एक ओर संबंधों में अन्तर्निहित सरोकारों को परिभाषित करने का प्रयास निष्फल रहा वहीं आत्मीयता की अभिव्यक्ति के अवसर भी एक के बाद एक कर के संवेदनशून्यता का शिकार बनते चले गए | मेरे व्यक्तित्व को निर्देशित करने के लिए किये गए प्रयासों ने एक ऐसी परिस्थिति का सृजन कर दिया जिसमें मेरी मौलिकता का दम घुटने लगा | अपरिचितों की भीड़ में तलाशता रहा किसी अपने से चेहरे को जो मेरे सरोकारों और उसमें निहित अंतर्द्वंद को परिभाषित करने में समर्थ हो | सहभागिता और सहधर्मिता की तलाश में जिस अन्वेषण की यात्रा शुरू हुई थी वो शायद आज भी अपनी मंजिल पर पहुँचने का इंतजार कर रही है |