समय या संदर्भों ने न्याय किया या अन्याय यह तो हमारी विचारधारा की परिपक्वता और विगत के अनुभवों
के विश्लेषण पर निर्भर करता है | प्रेम के प्रसंग में किसी की सोच इस प्रस्फुटन को पूर्णकालिक मान लेती है तो
किसी और की सोच में यह अंशकालिक ही रह जाता है | कुछ के लिये यह अहसास सार्वभौमिक और नैसर्गिक
है तो कुछ को इसमें सिवा स्वार्थ एवं मनोविकार के सिवा कुछ और दृष्टिगत नहीं होता | जीवन यात्रा में
अनेक व्यक्तित्वों से साक्षात्कार होता है | कुछ आपके बिखराव को समेट एक सार्थक स्वरुप देने का
प्रयास करते हैं तो कुछ आपकी अस्मिता को खंडित करने का |
जीवन के उत्तरार्द्ध में विगत का अवलोकन करने के क्रम में यह निर्णय पूर्णरूपेण उस व्यक्तित्व पर
निर्भर करता है कि किसने उसकी वैयक्तिकता को संपूर्णता प्रदान की ,वह जिसने उसे सराहा अथवा
वह जिसने उसे आहत किया | न्याय या अन्याय ,धर्म या अधर्म ,नैतिकता वा अनैतिकता ,पाप अथवा
पुण्य ,सफलता या असफलता ,मर्यादित अथवा अमर्यादित ,ये सभी विषय प्रासंगिक और सापेक्ष हैं |
इन्हें सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता | तात्कालिक सामाजिक
एवं सांस्कृतिक अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में अवलोकन कर के ही हम अपनी सोच को एक सार्थक एवं
रचनात्मक ऊर्जा से अनुप्राणित कर सकते हैं |