असमंजस

 

आज नहीं कुछ कह पाऊंगा

इस दलदल से कैसे निकलूं 

कैसे फिर अहसास जगाऊं

बिखर गए हैं छंद छबीले

कैसे फिर आलाप लगाऊं

मध्यम पंचम धैवत कोमल

नहीं लग रहा कोई भी स्वर

बस्ती भरी मकानों से है

नहीं दिख रहा कोई भी घर

घिरी घटाएं उमड़ घुमड़ कर

पता नहीं कब बरसेगीं  

आम आदमी की उम्मीदें

कब तक यूँ ही तरसेगीं

बेशर्मों की इस बस्ती में

कैसे नज़र झुका पाउँगा

आज नहीं कुछ कह पाऊंगा ………..

2 टिप्पणियाँ “असमंजस” पर

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