वेदना संतृप्त हो कर पिघलना चाहती है
अनमनी सी घटाओं से बरसना चाहती है
भींगते मन से कोई महसूस करना चाहता है
बूंद को मोती समझ कर सजा लेना चाहता है
पर कहाँ सन्दर्भ ऐसे ,चाहतें कहाँ हैं ऐसी
स्वार्थ के साये में समर्पण की आस कैसी ?
सजे हैं बाजार संबंधों की लगती बोलियां हैं
बिक रही हैं भावनाएँ लुट रहीं अब डोलियाँ हैं
चलो हम भी कर लें सौदा बेबसी लाचारगी का
शराफत को छोड़ ओढ़े लबादा आवारगी का ………
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बहुत सुन्दर …..पर हम अपनी पहचान क्यों खोए…