अपेक्षा

माना  कर्मठ हो , अच्छा है, व्यस्त  सदा  तुम  रहते हो,

पर इतना तो बतला दो कि उलझे उलझे क्यों रहते हो ?

जीवन रण है,तुम शूर वीर ,क्यों हर पल हो जाते अधीर,

गर विजय चाहते समर में तुम ,पहले खींचो एक लकीर |

लक्ष्मण रेखा न पार करो ,मद,मोह,लोभ प्रतिकार करो,

सम्मान मिले या निंदा हो ,स्थिरता  से  व्यवहार  करो |

अधिकारों की आहुति दे कर ,कर्तव्यों को स्वीकार करो,

लज्जा को नित संरक्षण दो ,निज धर्म को अंगीकार करो,

आकाश कुसुम की छोड़ो तुम,इस उपवन से प्यार करो |

तेजोमय  जब  हर  अणु है ,तुम  बुझे बुझे क्यों रहते हो,

कुछ क्षण अपने में डुबो तुम,उलझे उलझे क्यों रहते हो ????  

6 टिप्पणियाँ “अपेक्षा” पर

  1. तेजोमय जब हर अणु है ,तुम बुझे बुझे क्यों रहते हो,

    कुछ क्षण अपने में डुबो तुम,उलझे उलझे क्यों रहते हो ????

    अच्छी लयबद्ध रचना है पर शीर्षक `अपेक्षा’ क्यों रखा यही सोच रही हूँ कोई सुन्दर पंक्ति भी ले सकते थे ….वैसे यह लेखक की पसंद पर निर्भर करता है…कृपया मेरी बात को अन्यथा न लें ….अच्छी रचना के लिए शुभकामनाएं …..

    डा. रमा द्विवेदी

    • आदरणीय रमा जी ,

      आपकी विश्लेष्णात्मक टिप्पणी का स्वागत है और इस कृपा को भविष्य में भी बनाये रखें इसका आग्रह भी | अनेक अवसरों पर ऐसा प्रतीत होता
      है कि कई कर्मठ लोग येन –केन –प्रकारेण सफलता प्राप्त करने को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठते हैं और इस क्रम में आधारभूत जीवन और सामाजिक मूल्यों की अनदेखी या अवहेलना करने लगते हैं | ऐसे व्यक्तित्वों से रचनाकार की कुछ अपेक्षाएं हैं जिनको इस कविता के माध्यम
      से व्यक्त करने का प्रयास किया गया है | धन्यवाद

      सादर

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