बीमार बन गए हैं अब दवा के सौदागर
ईलाज करते हैं वो जिन्हें मर्ज का पता ही नहीं
बहारें यूँ तो छा गयी हैं फिजां पे खुल के
बाग ऐसे भी हैं जिनका उन्हें पता ही नहीं
खुमार तंगदिली का छाया है उनपे कुछ ऐसा
खुली है आँख पर पहचान का पता ही नहीं
पूछते हैं हम उनसे सुकुं मिलेगा कहाँ
जिन्हें खुद अपने घर का पता ही नहीं
बन बैठे हैं जन आशा के नुमाइंदे जो दिव्यांश
बेचारगी भूख मुफलिसी का उन्हें पता ही नहीं
कभी सोचा था जैसा वतन के रहनुमाओं ने
मिलेगा कब वो मंजर हमें पता ही नहीं
Advertisements